आज विश्व के लगभग सभी देश जलवायु परिवर्तन तथा पर्यावरण असंतुलन जैसी गंभीर समस्याओं से त्रस्त हैं। इन समस्याओं के लिए मनुष्य तक काफी हद तक जिम्मेदार हैं। ये सभी समस्याएँ जैवविविधता में आए परिवर्तन के फलस्वरूप है। पृथ्वी पर उपस्थित जैवसंसाधन – पेड़, पौधे, वनस्पतियां, जीव जंतु, सूक्ष्म जीव, पहाड़, नदियां, क्षरने आदि हमारे वातावरण को संतुलित रखते हैं तथा इनकी अंतर्क्रियाऐं से दूसरी प्रजातियों को अस्तित्व बनाए रखने में सहायता होती है, लेकिन मनुष्यों के अनुचित क्रियाकलापों से बहुत महत्वपूर्ण प्रजातियां या तो विलुप्त हो चुकी हैं, या संकटग्रस्त हैं। हम आज भारत में जैवविविधता के क्षय के कारणों की समीक्षा – Review of the causes of loss of biodiversity in India करेंगे | तथा ये भी जानने का प्रयास करेंगे कि किन किन कारणों से भारत में जैवसंपदा विनाश की ओर अग्रसर है।
भारत में जैव विविधता के क्षय के कारणों की समीक्षा Review of causes of loss of biodiversity in India
भारत में प्रकृति की अमूल्य संपदा के समृद्ध क्षेत्र हैं जैवविविधता पर आए संकट पर बात करने से पहले हम भारत में पायी जाने वाली विभिन्न जैवसंपदाओं के समृद्ध क्षेत्रों के बारे में संक्षिप्त रूप में बताना चाहते हैं। हिमालय पर्वतीय क्षेत्र हो या डेक्कन का प्रायद्वीप, मुख्यतः जैवविविधता से समृद्ध धरती का एक अपना अलग ही सौंदर्य है। उत्तराखंड की भूमि को देवभूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ चारों धामों का वास है। इसके साथ ही यहाँ सिक्खों का पवित्र गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब भी है। ये क्षेत्र हिमालय पर्वतीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहाँ पर गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री तथा यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री हैं। भारत के दक्षिण में विशालतम प्रायद्वीपीय पठार है जिसे दक्कन का पठार कहते हैं। ये विंध्याचल – सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला तथा पूर्वी व पश्चिमी घाट के मध्य में स्थित है। भारतीय मरुस्थल अरावली पहाड़ियों के उत्तर पश्चिम में स्थित है यह मरूस्थल दो भागों सिंधु और कच्छ का रण में बंटा हुआ है। इसे थार मरुस्थल भी कहते हैं। भारत में इस मरुस्थल का 85% भाग व शेषभाग पाकिस्तान में स्थित है। थार मरुस्थल को विश्व का सर्वाधिक समृद्ध मरुस्थल कहा जाता है। भारत का उत्तरी मैदान शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिण में है। यहाँ पर गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां वहती है जो डेल्टा का निर्माण करती है। जैसे सुंदरबन डेल्टा विश्व प्रसिद्ध डेल्टा है। इसके अलावा भारत की तटीय रेखा लगभग 7500 किलोमीटर से भी अधिक लंबी है। तटीय मैदानों को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है– 1. पूर्वी तटीय मैदान 2. पश्चिमी तटीय मैदान। पूर्वी तटीय मैदान पूर्वी घाट और बंगाल के खाड़ी के मध्य में स्थित है तथा पश्चिमी तटीय मैदान गुजरात में खम्पात की खाड़ी और कन्याकुमारी में केप कोमोरिन के मध्य स्थित है। पूरे भारत में जैवविविधता का खजाना फैला हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप में प्रकृति की अमूल धरोहर बिखरी पड़ी हुई है और वह अनुपम छटा बिखेर रही है। इस ब्रह्माण्ड के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर हम कह सकते हैं कि केवल पृथ्वी ही ऐसा ग्रह है जहाँ पर जीवन है और ये जीवन मानवों, जीव जंतुओं, पेड़, पौधों, पक्षियों, झीलों, तालाबों, समुद्र, पर्वतों और मरुस्थलों के रूप में सर्वत्र व्याप्त है। पृथ्वी पर स्थान परिवर्तन के साथ साथ जलवायु में विविधता पायी जाती है और साथ ही साथ जैविक संपदा में भी विविधता पाई जाती है। ये जैवविविधता मानव व अन्य जीवों के लिए जीवन दायिनी परिस्थितियों का निर्माण करती है। सभी जैव प्रजातियां अपने अपने स्तर से पर्यावरण का उपयोग करतीं हैं, वे पर्यावरण से कुछ लेती है तथा कुछ देती भी है। जो दूसरे जीवों के लिए आवश्यक है। लेनदेन का एक क्रम बना हुआ है, जिससे पर्यावरण का संतुलन बना हुआ है। अर्थात किसी भी प्रजाति का जीवन दूसरी प्रजातियों के जीवन से काफी हद तक प्रभावित होता है। जब कोई प्रजाति विलुप्त होती है तो अन्य प्रजातियां भी इसके गंभीर परिणाम झेलतीं हैं। लेकिन मनुष्यों की प्रगति और बढ़ती इच्छाओं ने इस संपदा को खतरे में डाल दिया है। भारत में जैवविविधता पर पिछले कुछ दशकों से संकट के बादल गहरे होते जा रहे हैं। मानव विकास की अंधी दौड़ में शामिल होकर अपने खुद के साथ साथ जीव – जंतुओं, पेड़ – पौधों, पर्वतीय क्षेत्रों को नुकसान पहुंचा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में लगभग 70% प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। ताजा पानी व जलीय क्षेत्रों में रहने वाली 84% प्रजातियों में, कमी आयी है| भारतीय उपमहाद्वीप में निवास करने वाले 12% स्तनधारी जीव जंतुओं व 3% पक्षी तथा 18% उभयचर प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर से जीव जंतुओं की लगभग 68% प्रजातियां बिल्कुल नष्ट हो गई हैं| इन सभी कृत्यों में मानव की सबसे बड़ी भूमिका है। हमने अपने आवास बनाने के लिए जीव जंतुओं के आवास स्थल जंगलों को काटा और यह प्रक्रिया तेजी से चलती जा रही है। निसंदेह ये विचारे वन्य जीव आवास की खोज में इधर उधर भटकते फिरते है। इसमें जैविक संतुलन पूरी तरह से बिगड़ गया है। फलस्वरूप मौसम में अनावश्यक परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। तथा पर्यावरण में अजीबोगरीब असंतुलन उत्पन्न हो गया है। अतः हम कह सकते हैं कि जैवविविधता का संरक्षण पर्यावरण के संरक्षण के लिए बहुत ही आवश्यक है। भारतीय पुरातन शास्त्रों में भी पेड़ पौधों, जीव जंतुओं तथा जैविक संपदा की रक्षा करने का वर्णन मिलता है। पर्यावरण के संतुलन के लिए पेड़ पौधे, बनस्पतियों और जीव जंतुओं, यहाँ तक कि कीड़े मकोड़ों भी बहुत आवश्यक है, लेकिन विकास की इस अंधी दौड़ में हम केवल कुछ ही बनस्पति जो शाक सब्जियों, इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ पौधों तथा अति उपयोगी जीव जंतुओं को ही बचा पा रहे है। शीघ्र संपन्न व विकसित होने की इस अंतहीन लालसा ने जंगलों, वनों व जैविक संपदा के बड़े क्षेत्रों को क्षति पहुंचाई है और ये प्रक्रिया अनवरत जारी है। तो आइए हम भारत में जैव संपदा के नष्ट होने के कारणों का अध्ययन करेंगें।
भारत में जैवविविधता नष्ट होने के कारण
भारतीय उपमहाद्वीप में जैवविविधता समृद्ध क्षेत्रों में उपस्थित संकट के उत्पन्न होने के कारण निम्न प्रकार से हैं —-
(1) आवासों का विनाश ( Destruction of Habitat)
ऐसी कल्पना करें कि आप सोकर जागते हैं और आपको पता चलता है कि आपकी दुनिया बदल गई है। जिस घर में आप वर्षों से रह रहे हैं, वह चला गया है, और ऐसी जगह पहुँच गए हैं जो पूरी तरह अपरिचित है। हमारे आसपास ऐसे जीव हैं, जिनसे हमें भयानक खतरा है और उनसे बचने का हमारे पास कोई रास्ता नहीं है। ऐसी विकट स्थिति में बहुत से लोग शायद जीवित ही ना बचें। वर्तमान परिदृश्य में ऐसी घटनाएं वन्य जीवों व जलीय जीवों के लिए प्रतिदिन घटित हो रही हैं। क्योंकि दिन-प्रतिदिन उनके आवासों का विनाश होता जा रहा है। जब हम अपनी बढ़ती इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे जंगल और जलीय स्थानों को समाप्त करते हैं तो वहाँ रह रहे जीवों के आवास नष्ट हो जाते हैं, और ये वन्य जीव आवास हीन हो जाते हैं। आवास क्षति (Habitat loss) को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है–
1 वनों की कटाई से आवास क्षति ( Habitat loss by deforestation)
वन्य जीव क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पेड़ पौधों के कट जाने से उन जीवों का आवास पूरी तरह नष्ट हो जाता है। मुख्यतया जंगलों की कटाई खेती, घर-इमारतें बनाने तथा व्यापारिक उपयोग हेतु की जाती है।
2 आवास विखंडन (Habitate Fragmentation)
जब वन्य जीव क्षेत्रों की भूमि को इस तरह बदला जाए, जिससे जानवरों को अपने स्वाभाविक जीवन यापन में कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो उसे आवास विखंडन कहते हैं। जंगलों में सड़कें या कोई इमारत बनाकर या पानी में बांध बनाने से उनके आवासों में बिखंडन हो जाता है, जिससे ये जीव एक दूसरे से प्रजनन हेतु मिलने तथा अपने खाद्य पदार्थों से दूर हो जाते हैं। जिसके फलस्वरूप इन प्रजातियों का धीरे धीरे विनाश होने लगता है।
2 आवासों का क्षरण (Habitat Degradation)
प्रदूषण के कारण भी आवासों का विनाश होता है। विषाक्त पदार्थों से वायु, पानी और भूमि की गुणवत्ता नष्ट होती है जिससे वहाँ के पर्यावरण में परिवर्तन होता है। साथ ही साथ इस परिवर्तित वातावरण में हानिकारक प्रजातियां आती हैं जो वहाँ की स्थानीय जैव संपदा के लिए खतरा हैं। इन परिस्थितियों में वहाँ के पेड़ पौधे, जीव जंतुओं का विनाश होने लगता है।
अतः इन आवासों के नष्ट होने से प्रजातियों को नए परिवेश में अनुकूलित होना पड़ेगा या कहीं और जाना होगा। यदि वे ऐसा नहीं कर पाते तो उन्हें भुखमरी, शिकार या बिमारी का सामना करना पड़ता है। आवासों के नष्ट होने से सबसे अधिक पक्षियों, स्तनधारियों तथा पौधों को खतरा है। ऐसा अनुमान है कि 89% पक्षी और 83% जानवर आवासों के विनाश के फलस्वरूप संकटग्रस्त हुए हैं। भारत में पश्चिमी घाट में तितलियों की दुर्लभ प्रजातियां तेजी से विलुप्त होती जा रही है। यहाँ पर तितलियों की 370 प्रजातियों में से 70 प्रजाति लुप्त हो चुकी है। Are we swallowing plastic! — क्या हम प्लास्टिक निगल रहे हैं!
(2) शिकार (Hunting)
मनुष्य प्राचीन काल से ही आखेट करता आया है। प्रगैतिहासिक काल में मनुष्य पशुओं का शिकार अपने भोजन हेतु करता था। आज व्यापारिक स्तर पर पशुओं का शिकार हो रहा है। आजकल परफ्यूम, सौंदर्य प्रशाधन, सजावटी सामग्री, खाल और त्वचा, दांत, सींग, फर, मांस और फार्मास्यूटिकल्स के लिए बड़े स्तर पर जंगली जानवरों का शिकार किया जा रहा है। भारत में हाथी दांत के लिए हाथियों का, कस्तूरी के लिए कस्तूरी मृग का, हड्डियों और त्वचा के लिए वाह, सींगों के लिए गैंडों का तथा त्वचा के लिए घड़ियाल और मगरमच्छ का शिकार किया जाता है। कश्मीर में फर के व्यवसाय के लिए सिआर का शिकार किया जाता है। व्हेल का बहुत ही बड़े व्यापारिक स्तर पर शिकार हो रहा है। इसकी हड्डियों व वलीन का उपयोग कंघा तथा अन्य पदार्थों के बनाने हेतु किया जाता है। फार्मास्यूटिकल उद्योग में बढ़ती मांग के कारण भारतीय बाघों का अवैध शिकार बढ़ता जा रहा है। ऐसा अनुमान है कि इस उद्योग में लगभग 100 बाघों की हड्डियों का उपयोग होता है। भारतीय बाघों के अवैध शिकार की रोकथाम के लिए भारत सरकार ने 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना लाँच की थी। परन्तु प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना भी अवैध शिकार को रोकने में असफल रही। इसका ये परिणाम हुआ कि रणथंभौर और केवलादेव राष्ट्रीय पार्क से बाघ लगभग गायब हो गए। बाघ की हड्डियाँ और खाल की तस्करी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही है जो बहुत चिंताजनक है। इसके अलावा बड़े बड़े राजघरानों के बिगड़ैल बच्चे आज भी अपने शौक को पूरा करने के लिए जंगली जानवरों का शिकार करते हैं। Read more – प्रकृति की अमूल्य धरोहर- Priceless heritage of nature
(3) शोध व चिड़ियाघर (Research and Zoo)
पूरे विश्व में पशु, पक्षियों व पौधों को चिड़ियाघर में इकट्ठा किया जाता है। यहाँ पर ये पशु-पक्षी पर्यटकों का मनोरंजन करते हैं। साइंस और मेडिसिन के क्षेत्र में अनुसंधान व अध्ययन करने के लिए बायोलॉजिकल व जियोलॉजिकल पार्को में इन्हें संग्रहित किया जाता है। अगर ये आपने आवास स्थलों में होते तो इन्हें अपने अनुकूल वातावरण मिलता जिससे उनकी वृद्धि व विकास होता।
बंदरों व चिंपैंजी के रचनात्मक, आनुवांशिक व शारिरिक गुण मनुष्यों से मिलते जुलते हैं। इसलिए इन प्राइमेट्स पर अनुसंधान करने के लिए इन्हें बहुत उपयोग में लाया जाता है। इसके अलावा चूहों व खरगोश पर भी प्रयोग किया जाता है।
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(4) अत्याधिक दोहन (Over exploitation)
WWF की लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट-2018 में बताया गया कि प्रकृति के अत्यधिक दोहन से सन् 1970 से अब तक लगभग 60% जंगली जीव जंतु व 87% आद्रभूमि का पृथ्वी से विनाश हो गया है। हम मनुष्यों की यह अंतिम पीढ़ी है जो अपने क्रियाकलापों से विनाश की वर्तमान दर पर कुछ लगाम लगा सकते हैं, इसके बाद तो ये स्थिति और भी भयानक रूप ले लेगी। रिपोर्ट में बताया गया कि पिछले 50 वर्षों में मनुष्यों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में 190% की वृद्धि हुई है, जिससे मधुमक्खियों, केचुओं जैसे परागणकों पर गंभीर खतरा छा गया है। ये परागणक मनुष्य के खाद्य पदार्थों व स्वास्थ्य के लिए बहुत ही आवश्यक है। विश्व की 75% खाद्य फसलें परागणकों पर निर्भर है, परंतु गहन कृषि के कारण मधुमक्खियों, कीड़ों व अन्य परागणक जानवरों की। 20,000 प्रजातियां खतरे में है। भारत में कृषि, उद्योग, सड़कें आदि बनाने मैं जैवसंपदा का दोहन किया जा रहा है, साथ ही साथ अत्यधिक प्रदूषण, बांध, आग, खनन और जलवायु परिवर्तन जैवसंपदा को भारी क्षति पहुंचाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 से 2010 के बीच पूरे विश्व की लगभग 33-40 % वन भूमि को अनेक व्यवसाय हेतु परिवर्तित कर दिया। तथा वर्ष 1970 से 2014 के बीच 4005 प्रजाति की 16,704 आबादी में 60% तक की गिरावट आई है। वन्य पौधों का व्यवसायिक रूप से अति दोहन अंततः विनाश का कारण बनता है। भारत में प्लाईवुड हेतु जंगली आमों तथा चर्बी के लिए व्हेल का अंधाधुंध विनाश हो रहा है। औषधीय महत्त्व के पौधे जैसे- पीडोफिलिया हेक्सेंड्रम, कॉप्टिस टीटा, एकोनिटम, डायोस्कोरिया डेल्टोइडिया, रावोल्फ़िया सर्पेंटिना, पैफ़िओपेडिलम ड्रूरी आदि और आर्किड, रोडोडेंड्रॉन जैसे बागवानी महत्त्व के पौधे अतिदोहन के शिकार हैं। इसके अलावा समुद्री क्षेत्र में उपलब्ध जैवसंपदा के अतिदोहन ने मछली, घोंगे, समुद्री गाय और समुद्री कछुए जैसे समुद्री जीवों को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है।
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(5) विदेशी प्रजातियां (Exotic Species)
विदेशी प्रजातियां स्थानीय पारितंत्र को बहुत हानि पहुंचाती है। ये आक्रामक विदेशी प्रजातियां देशी प्रजातियों पर विनाशकारी प्रभाव डालती है। कभी कभी ये प्रभाव इतना हानिकारक होता है कि देसी प्रजातियां विलुप्त होने लगती है। आक्रामक विदेशी प्रजातियां जैसे जानवर, पौधे, कवक और सूक्ष्म जीव अपने प्राकृतिक आवास से बाहर आकर दूसरे पारितंत्र में अपना पर्यावरण स्थापित कर लेते हैं। ये तेजी से प्रजनन करते हैं और अपनी आबादी बढ़ा लेते हैं। ये विदेशी प्रजातियां देशी प्रजातियां से भोजन, जल और निवास के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। इस कारण देसी प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुँच जाती हैं। उदाहरणस्वरूप – प्रशांत और भारतीय क्षेत्रों में बकरियों व खरगोशों के आगमन से बहुत से पेड़, पौधे और सरीसृपों के आवास नष्ट हुए हैं।
(6) कीट और परभक्षियों पर नियंत्रण (Control of pest and predators)
किसी परिस्थितिकीय तंत्र में आक्रामक प्रजातियां जो वहाँ की स्थानीय प्रजातियों को हानि पहुंचाती है, परभक्षी की श्रेणी में आते हैं। इन पर परभक्षियों व कीटों को मारने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों के प्रयोग से देसी प्रजातियों को भी हानि पहुंचती है। Read more – फ्लेक्स फ्यूल के फायदे और नुकसान – Flex-fuel ke fayede aur nuksaan
(7) प्रदूषण (Pollution)
प्रदूषण प्राकृतिक आवासों को परिवर्तित कर देता है कई प्रकार के प्रदूषण — वायु, जल, ध्वनि व मृदा प्रदूषण किसी भी पारितंत्र के पर्यावरण को नष्ट करके वहाँ की प्रजातियों को बहुत हानि पहुंचाते हैं। जल प्रदूषण नदियों के मुहानों तथा तटीय पारितंत्र के जैव घटकों के लिए बहुत ही हानिकारक है। हानिकारक रसायन व अपशिष्ट पदार्थ जलीय तंत्र में प्रवेश करके उसे प्रदूषित करते हैं। और ये प्रदूषित जल, खाद्य श्रृंखला व जलीय पारितंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक है। अनेक कीट भक्षी व परभक्षी, तथा रसायन जैसे- सल्फर डाइऑक्साइड, अम्ल वर्षा, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, ओजोन का क्षरण और ग्लोबल वार्मिंग भी अनेक जानवरों व पौधों की प्रजातियों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। तटीय क्षेत्रों में होने वाले तटीय प्रदूषण का प्रभाव भी बहुत हानिकारक होता है। समुद्र तटीय क्षेत्रों में होने वाली गतिविधियां – तेल रिसाव, औद्योगीकरण तथा अवैध खनन से होने वाले प्रदूषण के फलस्वरूप प्रवालभित्तियां (कोरल रीफ) बहुत ही प्रभावित होते हैं। जंगली जानवरों व पक्षियों के लिए ध्वनि प्रदूषण भी बहुत खतरनाक होता है। बहुत से सूक्ष्म जीव तेज आवाज या धमाके से नष्ट हो जाते हैं। अध्ययन से पता लगा कि जहाजों, बर्फ को तोड़ने वाले बड़े बड़े उपकरणों तथा टैंकरों की आवाज से आर्कटिक व्हेल विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई हैं।
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(8) वनोन्मूलन (Deforestation)
पेड़ पौधे हमारे लिए बहुत ही उपयोगी है। यह मनुष्यों व अन्य जीवधारियों द्वारा छोड़ी गई कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करके हमारे लिए प्राणवायु ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं। पेड़ पौधों का संपूर्ण जीवन ही मनुष्यों व अन्य जीवधारियों को समर्पित है। ये हरियाली व छाया देते हैं, हमारे लिए फूल व फल देते हैं, अनेक औषधियाँ देते हैं, जल को सोखकर वातावरण में नमी देते हैं, वाढ़ में मिट्टी को कटने से बचाते हैं, पशु पक्षियों को आवास देते हैं, भोजन व कपड़ा प्रदान करते हैं तथा अंत में लकड़ी के रूप में फर्नीचर प्रदान करते हैं। वृक्षों का एक बड़ा समूह- वन वर्षा को संतुलित करके मौसम का संतुलन बनाए रखता है। तथा तेज ध्वनि को भी अवशोषित करता है। वन्य जैव संपदा की क्षति के मुख्य कारण जनसंख्या विस्फोट और वनोन्मूलन है। बढ़ती जनसंख्या के कारण अनेक आवासों व खेती हेतु वनों का कटान जारी है। इसके अलावा विकास परियोजनाएं, जलने वाली लकड़ी की मांग, सड़क निर्माण, कच्चे माल के रूप में लकड़ी की मांग तथा अनेक उद्योगों- माचिस, कागज, प्लाईवुड व फर्नीचर में उपयोग होने के कारण इनका अंधाधुंध कटान जारी है। एक शोध के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग 13,000 वर्ग किलोमीटर वनों की कटाई हो रही है। यदि यह वर्तमान दर बरकरार रहती है तो आने वाले कुछ वर्षों में जैव विविधता में क्षति की दर लगभग 100 प्रजाति प्रतिवर्षं हो जाएगी।
(9) तस्करों से हानि (Loss from smugglers)
पिछले कुछ दशकों में तस्करी से अति महत्वपूर्ण जैव संपदा का विनाश होता जा रहा है। सीमा सुरक्षा बल की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में भूटान और नेपाल की सीमा पर दुर्लभ वन्यजीवों के अंगों और अति दुर्लभ वनस्पतियों, औषधीय पौधों सरीखी जैव संपदा की तस्करी कई सौ गुना बढ़ गई है। हमारे देश में लगभग 45,000 पौधों की प्रजातियां ज्ञात है, उनमें से बहुत सी दुर्लभतम प्रजाति के पौधे हैं। हमारे देश की अमूल्य जैव संपदा को विदेशों में भेजने वाले कई गिरोह बकायदा काम कर रहे हैं। भारत में तस्करों की पसंद वे जैव संपदा हैं, जिनके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था, लेकिन विदेशी उनके महत्त्व को समझते हैं | इसके विरुद्ध कानून बनने की आवश्यकता है|
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निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में जैव विविधता का अद्भुत सौंदर्य कण-कण में व्याप्त है। पश्चिमी घाट से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक तथा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जैवविविधता के जीवंत दर्शन होते हैं। जिसे हमने अपने पिछले लेख भारतीय उपमहाद्वीप में जैव विविधता का सच्चा खजाना में विस्तार से समझा। मनुष्य अपनी बढ़ती महत्वकांक्षाओं और विकसित होने की अंधी दौड़ में जैव संपदा का दोहन कर रहा है, जिसके फलस्वरूप जैवसंपदा पर संकट आ गया है। कुछ प्रजातियां तो विलुप्त हो चुकी हैं तथा कुछ विलुप्त होने की कगार पर हैं। हमने प्रस्तुत लेख में भारत में जैवविविधता के क्षय के कारणों की समीक्षा की तथा उन कारणों को जाना जिनसे हमारे पेड़ पौधे, जीव, जंतु व वनस्पतियों का धीरे धीरे विनाश होता जा रहा है। इन कारणों में जीव जंतु व पक्षियों के आवासों का विनाश, उनका शिकार, प्राकृतिक संपदा का अतिदोहन, प्रदूषण और वनोन्मूलन प्रमुख हैं। हम मनुष्यों ने अपनी स्वार्थपरता के कारण जैविक संपदा को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है। इसके अलावा कुछ जेनेटिक व पारिस्थितिकीय कारक भी है। हमें अपनी जैव संपदा को बचाने को स्वयं ही प्रयास करने होंगे, क्योंकि जैव संपदा पर आने वाले संकट से हम सभी बहुत बुरी तरह से प्रभावित हैं।
FAQ
Q1: जैव विविधता के लिए प्रमुख खतरा क्या है?
ANS : प्रदूषण प्राकृतिक आवासों को परिवर्तित कर देता है कई प्रकार के प्रदूषण — वायु, जल, ध्वनि व मृदा प्रदूषण किसी भी पारितंत्र के पर्यावरण को नष्ट करके वहाँ की प्रजातियों को बहुत हानि पहुंचाते हैं। जल प्रदूषण नदियों के मुहानों तथा तटीय पारितंत्र के जैव घटकों के लिए बहुत ही हानिकारक है। हानिकारक रसायन व अपशिष्ट पदार्थ जलीय तंत्र में प्रवेश करके उसे प्रदूषित करते हैं। और ये प्रदूषित जल, खाद्य श्रृंखला व जलीय पारितंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक है। अनेक कीट भक्षी व परभक्षी, तथा रसायन जैसे- सल्फर डाइऑक्साइड, अम्ल वर्षा, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, ओजोन का क्षरण और ग्लोबल वार्मिंग भी अनेक जानवरों व पौधों की प्रजातियों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं।
Q2: जैव विविधता के नुकसान के 5 प्रमुख कारण क्या हैं?
Ans: (1) आवासों का विनाश ( Destruction of Habitat), (2) शिकार (Hunting), (3) अत्याधिक दोहन (Over exploitation), (4) वनोन्मूलन (Deforestation), (5) तस्करों से हानि (Loss from smugglers)
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SEO-оптимизация сайта SEO — это комплекс действий непосредственно на сайте и вне его, необходимых для повышения позиций ресурса в поисковой органической выдаче Google по релевантным запросам, и как результат — его видимости целевой аудитории. Мы разделяем SEO на два этапа — это SEO-оптимизация и SEO-продвижение. Ведь без технически правильной SEO-оптимизации дальнейшее SEO-продвижение невозможно. При качественном SEO-продвижении, ваш сайт будет находиться на первой странице поисковиков, а значит — получать больше трафика и целевых действий от посетителей. Для сравнения, веб-ресурсы, которые не оптимизируют и не продвигают для поисковых систем, зачастую вообще не отображаются в выдаче и соответственно не имеют органических переходов. При формировании поисковой выдачи по запросу используется сложная формула сортировки, учитывающая десятки параметров. Алгоритмы ранжирования регулярно обновляются, дополняются и модернизируются с единой целью — обеспечить максимально релевантные ответы на запросы пользователей. Точный алгоритм построения выдачи результатов не разглашается работниками поисковиков, сообщаются лишь общие требования и критерии заточенного под SEO ресурса, позволяющие попасть в ТОП (первую десятку результатов). При этом каждый новый апдейт Google ужесточает правила для игроков на рынке маркетинга и добавляет работы SEO-специалистам и владельцам бизнесов. Побеждают сильнейшие — те, кто готов адаптироваться и постоянно работать над веб-ресурсом. Но в качестве вознаграждения — постоянный бесплатный органический трафик, повышение позиций и удержание ТОПа. На практике, без активных работ по поисковой оптимизации и продвижению практически невозможно вывести сайт на первую страницу выдачи в высококонкурентных коммерческих тематиках, даже если его контент и техническая реализация будут идеальными.
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