नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti 

हिंदू धर्म से संबंधित धार्मिक ग्रंथो में भक्ति का विभिन्न तरीके से वर्णन किया गया है। सच्ची भक्ति  में बहुत ही शक्ति होती है क्योंकि सच्चे भक्त के वश में भगवान होते हैं। ज्ञानी मनुष्य को भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो पाती किंतु  सच्चे भक्त को ईश्वर का सानिध्य प्राप्त होना सुलभ है। सच्ची भक्ति वह मानसिक अवस्था है जब भक्त अपने आराध्य भगवान के श्री चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है। सच्चे भक्त के जीवन का हर क्षण अपने आराध्य भगवान की भक्ति में समाहित है। हमारे प्राचीन ग्रंथो में  दो बार नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन किया गया है । सतयुग में भक्त प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप को नवधा भक्ति का उपदेश दिया था, जिसका वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में मिलता है। तथा त्रेता युग में भगवान श्री राम ने नवधा का उपदेश माता शबरी को दिया था, इसका वर्णन रामचरितमानस में मिलता है। आज हम इस लेख में नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti के बारे में समझाने का प्रयास करेंगे।

nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti
nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti

नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति  nau prakaar kee bhakti ya navadha

कथावाचकों, साधु संतों और महात्माओं के द्वारा जिन नौ प्रकार की भक्ति का गुणगान किया जाता है,  वास्तव में यह नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti का उपदेश दो भिन्न भिन्न युगों में भक्त प्रहलाद और भगवान श्री राम ने दिया है। ये नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति ,  मनुष्यों के जीवन में बहुत कल्याणकारी और मंगलकारी है। इन नौ प्रकार की भक्ति में से किसी एक प्रकार की भक्ति का मार्ग अपनाने से सारे शुभ – अशुभ कर्मों का नाश हो जाता है और मनुष्य प्रभु के चरणों में स्थान पाता है।    अठारह स्मृतियों का परिचय  – athaarah smrtiyon ka parichay

भक्त प्रहलाद द्वारा वर्णित नवधा भक्ति

सतयुग में भक्त प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप को नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti का उपदेश दिया था । इस  नवधा भक्ति का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के सातवें स्कंध के पांचवें अध्याय में दिया गया है।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः, स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं, सख्यमात्मनिवेदनम्।।

इस श्लोक में वर्णित नवधा भक्ति को  समझने का प्रयास करते हैं –

(1) श्रवणं

श्रीमद्भागवत में  भक्त प्रहलाद द्वारा बताई गयी पहली भक्ति है – श्रवणं  अर्थात भगवान के गुणों, उनकी कथाओं, कृपा और लीलाओं को बड़े भक्ति भावना से सुनना।

(2) कीर्तनं

कीर्तनं अर्थात् भगवान् के नाम, उनकी कृपा और महिमा का बहुत ही उत्साह, आनंद और भक्ति से गुणगान या गायन करना ही श्रीमद्भागवत के अनुसार दूसरी भक्ति है।    आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी – Adi Guru Sri Shankaracharya Ji 

(3) स्मरणं

भगवान श्री हरि विष्णु का स्मरण करना श्रीमद्भागवत के अनुसार भक्ति का तीसरा रूप है। भगवान के नाम,  रूपों और लीलाओं का हृदय से सतत स्मरण करना ही तीसरी भक्ति है। नाम स्मरण करने से इंसान पर से मोह-माया का प्रभाव नष्ट हो जाता है, और व्यक्ति परमधाम को प्राप्त होता है।        किशोरावस्था में भटकाव क्यों है और इसका निराकरण

(4) पादसेवनम्

पादसेवनम् अर्थात भगवान के चरण कमलों की नित्य पूजा करना ।  श्रीमद्भागवत में पादसेवनम्, नवधा भक्ति का चौथा रूप है । व्यक्ति को हर समय अपने सम्मुख भगवान को उपस्थित  मनाना चाहिए ऐसा मानते ही वह भगवान के चरण कमलों की पूजा या चरण कमलों में ध्यान  लगा सकता है।      भारत में जैवविविधता के क्षय के कारणों की समीक्षा

(5) अर्चनं

श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित भक्ति का पांचवा रूप है अर्चना अर्थात अनुष्ठान या पूजा करना। भगवान की पूजा बहुत ही पवित्रता के साथ की जानी चाहिए। इसके साथ पूजा सामग्री की शुद्धता, मन की पवित्रता तथा पूजा करने वाले और कराने वाले में भी पवित्रता का भाव होना चाहिए।

(6) वन्दनं

श्रीमद्भागवत पुराण में भक्ति का छठा रूप है- वंदनं अर्थात वंदना करना । वंदना, नमस्कार और प्रणाम करना ही छठी प्रकार  की भक्ति है। वन्दना अर्थात भगवान के प्रति अपनी अनन्य भक्त की प्रतिज्ञा करना,  प्रणाम – अर्थात भगवान की उपस्थिति को अपने चारों ओर महसूस करना। नमस्कार:  भगवान के द्वारा मनुष्य पर किए गए बहुत से उपकारों की याद करना और उन्हें अपना धन्यवाद देना।            प्रकृति की अमूल्य धरोहर

(7) दास्यं

श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति का सातवां रूप है- दास्यम अर्थात् भगवान् का समर्पित सेवक बनना।  अपनी शक्ति, बुद्धि, धन-धान्य का अहंकार ना करते हुए भगवान की भक्ति में अपने आप को समर्पित करना ही इस प्रकार की भक्ति का स्वरूप है।

(8) सख्यम

श्रीमद्भागवत पुराण में नवधा भक्ति का आठवां रूप है – सख्यम अर्थात मित्रता। भगवान के साथ मित्रता का अर्थ है कि ईश्वर से अपने प्रत्येक कार्य को ना छुपाना, मन में किसी बात को दबाके  ना रखना। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास करते हुए अपने कर्म करना कि ईश्वर हमेशा हमारे साथ है।

(9) आत्मनिवेदनम्

श्रीमद्भागवत में वर्णित  नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति का नवम  या अंतिम रूप है- आत्म निवेदन अर्थात आत्म समर्पण करना। अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, पसंद, नापसंद  दैनिक जीवन में किए जाने वाले क्रियाकलाप और अपनी पूर्ण संपत्ति का भगवान के श्री चरणों में पूर्ण समर्पण ही नवधा भक्ति का अंतिम रूप है।

श्रीमद्भागवत पुराण में बताया गया है कि यदि व्यक्ति नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti में से किसी एक प्रकार की भी भक्ति का आश्रय लेता है, तो उसका जीवन कष्टों से मुक्त हो जाता है। तथा मनुष्य प्रभु के धाम मे स्थान पाता है।

भगवान श्री राम द्वारा वर्णित नवधा भक्ति

त्रेता युग में भगवान श्री राम ने माता शबरी को नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti का उपदेश दिया था । इस प्रकार की भक्ति का वर्णन श्री रामचरितमानस के अरण्य कांड में  है। श्री रामचरितमानस के अरण्य कांड में भगवान श्री राम द्वारा माता शबरी को  दिये गये नवधा भक्ति के उपदेश को तुलसीदास जी ने निम्न चौपाइयों के माध्यम से वर्णित किया ——–

नवधा भक्ति कहउँ तोहि पाहीं, सावधान सुनु धरू मन माहीं।

प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।

गुर पद पंकज सेवा , तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन, गन करई कपट तजि गान।। 

मंत्र जाप मम दृढ़  बिस्वासा, पंचम भजन सो बेद प्रकासा।

छठ दम सील बिरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धरमा।। 

सातवँ सम मोहि मय जग देखा,मोतें संत अधिक करि लेखा। 

आठवँ जथालाभ संतोषा, सपनेहुँ नहिं देखि परदोषा।।

नवम सरल सब सन छलहीना, मम भरोस हियँ हरष न दीना। 

नव महुँ एकउ जिन्ह के होई, नारि पुरुष सचराचर कोइ।। 

आइये हम नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti को समझने का प्रयास करते हैं-

(1)   संतों की संगति

भगवान् श्री राम कहते हैं कि सच्चे संतो का साथ ही प्रथम भक्ति है। संतों का तात्पर्य है सद् चरित्र वाले लोग।  सद् चरित्र वाले लोगों की संगति होने से व्यक्ति को सद् गति व सद् मति प्राप्त होती है। रामचरितमानस मे ही ऐसे कई उदाहरण हैं जैसे –  हनुमान जी जैसे श्रेष्ठ संत की संगति से विभीषण जी लंका के और सुग्रीव जी किष्किंधा के राजा बने । तथा हनुमान जी की कृपा से ही दोनों को भगवान श्री राम का सानिध्य प्राप्त हुआ। इसके अलावा नारद जी के संगति से कौवा बने जयंत को भगवान की शरण मिली । काकभुशुंडि जी की संगति से गरुड़ जी के भ्रमों का निवारण हुआ और भगवान शिव के संग से माता पार्वती जी के मन के भ्रम दूर हुए और उन्हें राम कथा की महत्ता का ज्ञान हुआ।

(2) रामकथा मे रुचि

कथा-श्रवण में रति या रुचि होना ही दूसरी भक्ति है। रामकथा को भक्तिभावना से सुनना ही भक्ति है, न कि उनकी कथा को बे मन से लगातार सुनते रहना।

(3) गुरु की सेवा

तीसरी भक्ति को वर्णित करते हुए भगवान श्री राम कहते हैं कि  अभिमान को त्याग कर अपने गुरुदेव के चरणों की सेवा करना ही तीसरी भक्ति है।  गुरु को ईश्वर की संज्ञा दी गई है । अतः  शिष्यों को अपने गुरु की सेवा तो करनी चाहिए इसके साथ-साथ वह सेवा अभिमान रहित होनी चाहिए क्योंकि अगर मन अभिमान से भरा हुआ होगा तो वह व्यक्ति अपने गुरु से कोई भी ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकता।                           आध्यात्मिक कैसे बनें

(4) भगवान् का कीर्तन

जो मनुष्य निष्कपट होकर भगवान के गुणों का गायन करता है, संकीर्तन करता है, उस मनुष्य के जीवन में भक्ति के चौथे स्वरूप का प्राकट्य होता है। भगवान श्री राम के गुणों का गायन करने वाले संतों में सर्वप्रथम नाम नारद मुनि का आता है, जो हर समय हर क्षण हाथ में बीणा लेकर, भगवान के गुणों  और नाम का गायन करते रहते हैं।

(5) मंत्रजाप

भगवान श्री राम माता शबरी से कहते हैं कि दृढ़विश्वास के साथ मेरे मंत्र का जाप करना ही पांचवी भक्ति है। मंत्र का जाप करना ही पर्याप्त नहीं उसके साथ भगवान् में दृढ़ विश्वास का होना परम आवश्यक है, क्योंकि भक्ति का प्राण तो विश्वास ही है।

(6) इंद्रिय निग्रह

भगवान श्री राम छठी भक्ति के रूप में बताते हुए कहते हैं कि इंद्रिय दमन, शील स्वभाव, बहुत सारे कर्म से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म में पृवत्त रहना ही मेरी छठी भक्ति है। इंद्रियों पर नियंत्रण रखना ही इंद्रियों का दमन है, और इंद्रिय दमन के साथ-साथ शील होना आवश्यक है। दूसरों की भावनाओं को समझने वाला, अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति शीलवान कहलाता है।

(7) प्रत्येक जीव को प्रभुमय देखना

प्रत्येक जीवात्मा को ईश्वर का अंश समझना और सच्चे संतों का सम्मान करना ही नहीं सातवीं भक्ति है।

(8) संतोष करना और परदोष दर्शन न करना

भगवान श्री राम कहते हैं कि मन में संतोष होना और अन्य व्यक्तियों के दोष दर्शन ना करना ही आठवीं भक्ति है। व्यक्ति के मन में संतोष होना परम आवश्यक है क्योंकि मन मे संतोष होने से लोभ नहीं होता ।

(9) सरलता और कपटरहित व्यवहार

भगवान श्री राम कहते हैं कि मन में सरलता होना, सभी व्यक्तियों के साथ कपट रहित बर्ताव करना, हृदय में भगवान का भरोसा रखना और हर्ष या विषाद किसी भी अवस्था में भगवान का भरोसा रखना ही नवमी भक्ति है।

सम्बन्धित पुस्तकें

(1) श्रीमद्भागवत महापुराण (भाग-1 एवं 2 का कॉम्बो पैक) (गीता प्रेस, गोरखपुर)

(2) Geeta Press Gorakhpur श्रीमद्भागवत महापुराण, खंड-1,2, हिन्दी अनुवाद सहित 

(3) Shrimad Bhagwad Gita Hardcover ( in hindi )

(4) Shree Ramcharitmanas by Tulsidas – Complete Epic of Lord Rama, Premium Hardcover Edition, Spiritual Guidance, Sanskrit & Hindi

(5) Shri Ram Charitmanas Gita Press Ramcharitmanas, Tulsidas Krit Ramcharitmanas, Code-81,(Hardcover, Hindi, Goswami Tulsidas) 

निष्कर्ष

इस तरह हमने जाना कि हमारे प्रसिद्ध ग्रंथों में दो बार नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti का उपदेश दिया गया है। पहले श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि सतयुग में भक्त प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप को नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti का उपदेश दिया जिसे हमने विस्तार पूर्वक अध्ययन किया। इसके बाद त्रेता युग में श्री रामचरितमानस के अरण्यकांड में भगवान श्री राम ने माता शबरी को नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti का उपदेश दिया था। इस तरह नवधा भक्ति के नौ सोपान योग साधना व जीवन साधना के मर्म को अपने में समाये हुए हैं, इन्हें अपना कर कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हुए भक्ति के आध्यात्मिक स्वरूप की ओर अग्रसर हो सकता है और अपने जीवन का कल्याण कर सकता है।

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